दिलकश

उड़ती जुल्फों ने आज शाम कर दी
सरेआम हाल-ए-दिल तमाम कर दी।

बिन थके हर पहलू को सलाम कर दी
बोलने की अदा ने बैठना हराम कर दी

यूं तो खामोसी बहुत डसती है सनम
तेरी बक बक ने जीना हराम कर दी।

भुला भी देता तुझे तो कैसे सनम
तूने तो दिल-ए-दरिया गुलाम कर दी।

लिखी गमों की दास्ताँ ऐसी खुदा ने
हमने त्याग सुखो चैन आराम कर दी

इक चाहत थी की चाहूं तुझे मैं सनम
चाहत ने ही सरे-आम बदनाम कर दी

मैं मुहब्बत के आखिरी पड़ाव में आ गया
उसने आज ही आगाज़-ए-अंजाम कर दी।
                             रामानुज   'दरिया'

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