बारिस आकर तू ,चांदनी न बेकार कर ||

पतझड़ न परेशान कर
गिर रहे हैं एक-एक कर
पत्तों की बेबसी पर
अब न विचार कर |
उम्र की न सीमा है
टूट कर न जीना है ,
छोड़ साख को
अब न सलाम कर |
घना अँधेरा भी है
चाँद का पहेरा भी है,
बारिश आकर तू
चांदनी न बेकार कर||
महंगाई का दौर है
समेट चाहत को ले,
खड़े बाजार में होकर
बेवजह न भाव कर |
क्यों दुशमनी निभाने लगे
वादा दोस्ती का कर ,
खंजर सीने में उतार दे
अब न पीछे से वार कर ||
प्रेम स्वाद के कई ,
चख कर ऐतबार कर |
खुद से है तो सही
औरों से , तो और सही ,
समभाल कर रख इसे
सरेआम न बदनाम कर ||
       रामानुज ‘दरिया

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