एक-एक कतरे के बदले
चार-चार जल्लाद चाहिए
अब मुझे हिंसाब चाहिए।।

धरा हुयी जिससे लाल
जिहादियों की किताब चाहिए
अब मुझे हिंसाब चाहिए।


तड़पती माँ के आंसुओं का
बिलखते शहीद के बपुओं का
अब मुझे हिंसाब चाहिए।

इंच-इंच इक -इक सूत का
उतरे हर मंगल सूत्र का
अब मुझे हिंसाब चाहिए।

चूड़ियों के चूर-चूर का
पूंछे हुए सिंदूर का
अब मुझे हिंसाब चाहिए।

चुन-चुन के लाओ
उसके अंत तक जाओ
उसकी लहू से धरा लाल चाहिए
अब मुझे हिंसाब चाहिए।

संविधान को बदल डालो
गला उसका काट डालो
बोटियां कुत्तों को खिलाओ
कुर्बान शहीदों का सम्मान चाहिए
अब मुझे हिंसाब चाहिए।।

            रामानुज "दरिया"




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