ग़ज़ल गम


      

लिपटकर रात भर मेरे साथ सोता है
जाने क्यूं मेरे साथ ही ऐसा होता है |

उतार देता हूँ बदन से हर कपड़े अपने
पता चलता है ओ रूह में उतरा होता है |

जी चाहता है निकल फेंकू ये रूह भी अपनी
ध्यान गया तो देखा रोम –रोम में बसा होता है |

मेरा गम से इतना गहरा नाता है
आँख खुलती है तो कोहरा सा होता है |

                  रामानुज ‘दरिया’


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