Happy Mother's day.माँ मैं तुझे कैसे भूल जाऊं।।
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कभी - कभी मैं सोंचता हूँ
उस पंखे से झूल जांऊ
जिंदगी हमेशा रुलाती है
इसे गहरी नींद में सुला जाऊं।।
पर माँ तेरी याद आ जाती है
पल भर में मेरी सोंच बदल जाती है
मैं सारे गम खुशी से पी जाऊं
पर माँ मैं तुझे कैसे भूल जाऊं।।
कभी - कभी मैं सोंचता हूँ
एक प्याला जहर का लगाऊं
नफ़रत - ए - जमाना हो गया
अब मैं मौन हो जाऊं।।
याद आ जाता है माँ का ओ तराना
टूट जाना पर किसी का दिल न दुखाना
तेरी मीठी यादों संग गोदी में सो जाऊं
माँ मैं तुझे कैसे भूल जाऊं ।।
कभी - कभी मैं सोंचता हूँ
रेलवे ट्रैक का शिकार हो जाऊं
जिंदगी को ऐसी रफ्तार दूँ
खुद को न कभी रोंक पाऊं।।
उंगली के सहारे चलना सिखाया
गम में भी हंसना सिखाया
आंचल में खुशियों के फूल बरसाऊं
माँ मैं तुझे कैसे भूल जाऊं।।
दिल को मन से जोड़ जाऊं
खुद को फौलादी कर जाऊं
आत्महत्या सोंचना भी अपराध है
यह संदेशा मैं घर -घर भिजवाऊं
माँ मैं तुझे कैसे भूल जाऊं।।
रामानुज 'दरिया'
उस पंखे से झूल जांऊ
जिंदगी हमेशा रुलाती है
इसे गहरी नींद में सुला जाऊं।।
पर माँ तेरी याद आ जाती है
पल भर में मेरी सोंच बदल जाती है
मैं सारे गम खुशी से पी जाऊं
पर माँ मैं तुझे कैसे भूल जाऊं।।
कभी - कभी मैं सोंचता हूँ
एक प्याला जहर का लगाऊं
नफ़रत - ए - जमाना हो गया
अब मैं मौन हो जाऊं।।
याद आ जाता है माँ का ओ तराना
टूट जाना पर किसी का दिल न दुखाना
तेरी मीठी यादों संग गोदी में सो जाऊं
माँ मैं तुझे कैसे भूल जाऊं ।।
कभी - कभी मैं सोंचता हूँ
रेलवे ट्रैक का शिकार हो जाऊं
जिंदगी को ऐसी रफ्तार दूँ
खुद को न कभी रोंक पाऊं।।
उंगली के सहारे चलना सिखाया
गम में भी हंसना सिखाया
आंचल में खुशियों के फूल बरसाऊं
माँ मैं तुझे कैसे भूल जाऊं।।
दिल को मन से जोड़ जाऊं
खुद को फौलादी कर जाऊं
आत्महत्या सोंचना भी अपराध है
यह संदेशा मैं घर -घर भिजवाऊं
माँ मैं तुझे कैसे भूल जाऊं।।
रामानुज 'दरिया'
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किसी का टाइम पास मत बना देना।
बातों का अहसास मत बना देना मुझे किसी का खास मत बना देना बस इतना रहम करना मेरे मालिक किसी का टाइम पास मत बना देना। जान कह कर जो जान देते थे ओ चले गये अनजान बन कर फितरत किसकी क्या है क्या पता बारी आयी तो चले गये ज्ञान देकर। अब होंसला दे खुदा की निकाल सकूं खुद को भी किसी तरह संभाल सकूं आसां नहीं रूह का जिस्म से जुदा होना बगैर उसके जीने की आदत डाल सकूं। हमने ओ भयावह मंजर भी देखा है किसी को टूटते हुये अंदर से देखा है अब किसी के लिये क्या रोना धोना हमने तो अब खुद में सिकंदर देखा है।
तेरे बिन जिंदगी बसर कैसे हो।
जो अमृत है ओ ज़हर कैसे हो तेरे बिन जिंदगी बसर कैसे हो। ख़्वाबों के अपने सलीक़े अलग हैं उजालों में इनका असर कैसे हो। इंसानियत प्रकृति की गोद में हो वहां कुदरत का कहर कैसे हो। घरों की पहचान बाप के नाम से हो वह जगह कोई शहर कैसे हो। पीने के योग्य भी न रह गया हो वह जल स्रोत कोई नहर कैसे हो। खुदगर्ज़ी की बांध से जो बंध गया हो उस सागर में फिर कोई लहर कैसे हो। ढल गया हो दिन हवस की दौड़ में फिर उसमें सांझ या दो पहर कैसे हो।
उनका भी इक ख्वाब हैं।
उनका भी इक ख्वाब हैं ख्वाब कोई देखूं मैं उनसे उन्ही की तरह लच्छेदार बात फेकूं मैं। टिकाया है जिस तरह सर और के कंधे पर चाहती है सर अपना किसी और कांधे टेकूं मैं। शौक था नये नजारों का यूँ तो सदा ही देखि ओ चाहत है उसकी कि कहीं और नयन सेकूं मैं। दिल से उसे निकाल कर बचा हूँ कितना खुद में वक्त मिले गर खुदा, तो खुद को खुद से देखूं मैं। समझदारी प्यार को भी व्यापार बनाती है प्रेम मिले भी अगर शिशु की भांति देखूं मैं। बेशक़ तेरे चाहने वालों की भीड़ बहुत भारी है गर दिल से उतर गयी तो लानत है मेरे व्यक्तित्व पर जो इक बार पलट कर देखूं मैं।

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