चाहत थी कि रोंक लूँ उसे।।
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चाहत थी कि रोंक लूँ उसे
पर तेवर ने झुकने न दिया।
जाना तो चाहती न थी
पर अहम ने रुकने न दिया।
एक ही दौलत थी मुस्कुराने की
बेबसी ने जिसे चुनने न दिया।
झूठी तारीफें तो खूब सुनी
सच को कानों ने सुनने न दिया।
कसर न रही तुझे भुलाने में
पर यादों ने मुझे उबरने न दिया।
तलाश थी जिस मंजिल की मुझे
उधर से किस्मत ने गुजरने न दिया।
हौंसले जब भी फ़ौलादी बने
अपनों ने मैदान में उतरने न दिया ।
बैठती तो थी आईने के सामने
बिरह ने कभी संवरने न दिया।
पर तेवर ने झुकने न दिया।
जाना तो चाहती न थी
पर अहम ने रुकने न दिया।
एक ही दौलत थी मुस्कुराने की
बेबसी ने जिसे चुनने न दिया।
झूठी तारीफें तो खूब सुनी
सच को कानों ने सुनने न दिया।
कसर न रही तुझे भुलाने में
पर यादों ने मुझे उबरने न दिया।
तलाश थी जिस मंजिल की मुझे
उधर से किस्मत ने गुजरने न दिया।
हौंसले जब भी फ़ौलादी बने
अपनों ने मैदान में उतरने न दिया ।
बैठती तो थी आईने के सामने
बिरह ने कभी संवरने न दिया।
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किसी का टाइम पास मत बना देना।
बातों का अहसास मत बना देना मुझे किसी का खास मत बना देना बस इतना रहम करना मेरे मालिक किसी का टाइम पास मत बना देना। जान कह कर जो जान देते थे ओ चले गये अनजान बन कर फितरत किसकी क्या है क्या पता बारी आयी तो चले गये ज्ञान देकर। अब होंसला दे खुदा की निकाल सकूं खुद को भी किसी तरह संभाल सकूं आसां नहीं रूह का जिस्म से जुदा होना बगैर उसके जीने की आदत डाल सकूं। हमने ओ भयावह मंजर भी देखा है किसी को टूटते हुये अंदर से देखा है अब किसी के लिये क्या रोना धोना हमने तो अब खुद में सिकंदर देखा है।
तेरे बिन जिंदगी बसर कैसे हो।
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उनका भी इक ख्वाब हैं।
उनका भी इक ख्वाब हैं ख्वाब कोई देखूं मैं उनसे उन्ही की तरह लच्छेदार बात फेकूं मैं। टिकाया है जिस तरह सर और के कंधे पर चाहती है सर अपना किसी और कांधे टेकूं मैं। शौक था नये नजारों का यूँ तो सदा ही देखि ओ चाहत है उसकी कि कहीं और नयन सेकूं मैं। दिल से उसे निकाल कर बचा हूँ कितना खुद में वक्त मिले गर खुदा, तो खुद को खुद से देखूं मैं। समझदारी प्यार को भी व्यापार बनाती है प्रेम मिले भी अगर शिशु की भांति देखूं मैं। बेशक़ तेरे चाहने वालों की भीड़ बहुत भारी है गर दिल से उतर गयी तो लानत है मेरे व्यक्तित्व पर जो इक बार पलट कर देखूं मैं।

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