शबनमी ओंठ अंगारे बरसाने लगे।
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छुप - छुप कर बतियाता ही रहता हूँ मैं
लगता है बगावत पे उतर आया हूँ मैं।
मेरे कर्मो का आईना देखो 'दरिया'
अपने ही विनाश पर उतर आया हूँ मैं।
नजदीकियां बढ़ी थी विषम परिस्थिति में
हालात बदलते , औकात में उतर आया हूँ मैं।
सम्भाल कैसे पाओगे ए - ख़ुदा हमें
जब गिरने पे ही उतर आया हूँ मैं।
हो सकता है कचहरी लग जाये कल
खिलाफ़ लिखने पे जो उतर आया हूँ मैं।
अब तो तरक्की ही पक्की है साहब
जब चाटुकारिता पे उतर आया हूँ मैं।
अब क्या न्याय और क्या सज़ा
जब रिस्वत पे उतर आया हूँ मैं।
तुम क्या समझाओगे दो दिन की पदनी
जब नीचता पे ही उतर आया हूँ मैं।
करेंगी क्या अब तेज़ हवाएं मेरा
तूफानों से गुज़र आया हूँ मैं।
दिखाती रहें औकात अपनी भी लहरें
'दरिया' किनारे पे उतर आया हूँ मैं।
शबनमी ओंठ अंगारे बरसाने लगे
उनकी नजरों से उतर आया हूँ मैं।
खींचकर झिड़क देती है जिस्म से
बनकर पसीना जो उतर आया हूँ मैं।
लगता है बगावत पे उतर आया हूँ मैं।
मेरे कर्मो का आईना देखो 'दरिया'
अपने ही विनाश पर उतर आया हूँ मैं।
नजदीकियां बढ़ी थी विषम परिस्थिति में
हालात बदलते , औकात में उतर आया हूँ मैं।
सम्भाल कैसे पाओगे ए - ख़ुदा हमें
जब गिरने पे ही उतर आया हूँ मैं।
हो सकता है कचहरी लग जाये कल
खिलाफ़ लिखने पे जो उतर आया हूँ मैं।
अब तो तरक्की ही पक्की है साहब
जब चाटुकारिता पे उतर आया हूँ मैं।
अब क्या न्याय और क्या सज़ा
जब रिस्वत पे उतर आया हूँ मैं।
तुम क्या समझाओगे दो दिन की पदनी
जब नीचता पे ही उतर आया हूँ मैं।
करेंगी क्या अब तेज़ हवाएं मेरा
तूफानों से गुज़र आया हूँ मैं।
दिखाती रहें औकात अपनी भी लहरें
'दरिया' किनारे पे उतर आया हूँ मैं।
शबनमी ओंठ अंगारे बरसाने लगे
उनकी नजरों से उतर आया हूँ मैं।
खींचकर झिड़क देती है जिस्म से
बनकर पसीना जो उतर आया हूँ मैं।
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किसी का टाइम पास मत बना देना।
बातों का अहसास मत बना देना मुझे किसी का खास मत बना देना बस इतना रहम करना मेरे मालिक किसी का टाइम पास मत बना देना। जान कह कर जो जान देते थे ओ चले गये अनजान बन कर फितरत किसकी क्या है क्या पता बारी आयी तो चले गये ज्ञान देकर। अब होंसला दे खुदा की निकाल सकूं खुद को भी किसी तरह संभाल सकूं आसां नहीं रूह का जिस्म से जुदा होना बगैर उसके जीने की आदत डाल सकूं। हमने ओ भयावह मंजर भी देखा है किसी को टूटते हुये अंदर से देखा है अब किसी के लिये क्या रोना धोना हमने तो अब खुद में सिकंदर देखा है।
तेरे बिन जिंदगी बसर कैसे हो।
जो अमृत है ओ ज़हर कैसे हो तेरे बिन जिंदगी बसर कैसे हो। ख़्वाबों के अपने सलीक़े अलग हैं उजालों में इनका असर कैसे हो। इंसानियत प्रकृति की गोद में हो वहां कुदरत का कहर कैसे हो। घरों की पहचान बाप के नाम से हो वह जगह कोई शहर कैसे हो। पीने के योग्य भी न रह गया हो वह जल स्रोत कोई नहर कैसे हो। खुदगर्ज़ी की बांध से जो बंध गया हो उस सागर में फिर कोई लहर कैसे हो। ढल गया हो दिन हवस की दौड़ में फिर उसमें सांझ या दो पहर कैसे हो।
उनका भी इक ख्वाब हैं।
उनका भी इक ख्वाब हैं ख्वाब कोई देखूं मैं उनसे उन्ही की तरह लच्छेदार बात फेकूं मैं। टिकाया है जिस तरह सर और के कंधे पर चाहती है सर अपना किसी और कांधे टेकूं मैं। शौक था नये नजारों का यूँ तो सदा ही देखि ओ चाहत है उसकी कि कहीं और नयन सेकूं मैं। दिल से उसे निकाल कर बचा हूँ कितना खुद में वक्त मिले गर खुदा, तो खुद को खुद से देखूं मैं। समझदारी प्यार को भी व्यापार बनाती है प्रेम मिले भी अगर शिशु की भांति देखूं मैं। बेशक़ तेरे चाहने वालों की भीड़ बहुत भारी है गर दिल से उतर गयी तो लानत है मेरे व्यक्तित्व पर जो इक बार पलट कर देखूं मैं।

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