छुप - छुप कर बतियाता ही रहता हूँ मैं
लगता है बगावत पे उतर आया हूँ मैं।
मेरे कर्मो का आईना देखो 'दरिया'
अपने ही विनाश पर उतर आया हूँ मैं।
नजदीकियां बढ़ी थी विषम परिस्थिति में
हालात बदलते , औकात में उतर आया हूँ मैं।
सम्भाल कैसे पाओगे ए - ख़ुदा हमें
जब गिरने पे ही उतर आया हूँ मैं।
हो सकता है कचहरी लग जाये कल
खिलाफ़ लिखने पे जो उतर आया हूँ मैं।
अब तो तरक्की ही पक्की है साहब
जब चाटुकारिता पे उतर आया हूँ मैं।
अब क्या न्याय और क्या सज़ा
जब रिस्वत पे उतर आया हूँ मैं।
तुम क्या समझाओगे दो दिन की पदनी
जब नीचता पे ही उतर आया हूँ मैं।
करेंगी क्या अब तेज़ हवाएं मेरा
तूफानों से गुज़र आया हूँ मैं।
दिखाती रहें औकात अपनी भी लहरें
'दरिया' किनारे पे उतर आया हूँ मैं।
शबनमी ओंठ अंगारे बरसाने लगे
उनकी नजरों से उतर आया हूँ मैं।
खींचकर झिड़क देती है जिस्म से
बनकर पसीना जो उतर आया हूँ मैं।
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