महकती धरती जिसके दम पर
और जगमाता आसमान है
चुनी यह राह है जिसने
उनको सौ-सौ बार प्रणाम है
मौजूद हजार राहें हैं
यूं तो जीवन निर्वाह खातिर
फिर भी उठा लिया वीड़ा
समाज के उत्थान खातिर।
दम घुटता है जब संस्कारों का
बनकर प्रचार आता है गुरु
बेशक कभी लौ नहीं बनता
मगर तेल का क़िरदार निभाता है गुरु।
पेंड़ बनकर खड़ा नहीं होता
मगर बीज का पोषण करता है गुरु
जाता नहीं चल कर कहीं
मगर हर राह दिखा देता है गुरु।
बुझते दीपक में तेल बनकर
डूबते जीवन में मेल बनकर
भटके राही के जीवन मे
चलती ट्रेन बनकर आते हैं गुरु
सभ्यता को संभाल कर रखना
संस्कारों को जीवित रखना
मचलते फूल से बच्चों को
बनाकर इन्शान रखना
आसान नहीं होता।
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