इंशानियत -ए- तालीम की।

इसे कुदरत का संतुलन नहीं
तो और क्या कहेंगे जनाब।
निशाना भी खुद ही लगाते हैं
और गोलियां भी खुदी खाते हैं।

काश पलटे होते कुछ पन्ने
इंशानियत -ए- तालीम की
बुलंदियां चमचमाती रहती
न चाटते धूल-ए-जमीन की।

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