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Showing posts from January, 2020
जिंदगी झंड थी झंड ही रह गयी।
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जितनी भी ख्वाइशें थी दरिया वक्त की संदूक में बंद रह गयी जिंदगी झंड थी झंड ही रह गयी। न थी पहले न कोई बाद आयी उदासी जो दिल में उतर आयी। मैनें चाहा भी तो क्या उसे उम्रभर ओ अनजान ही रह गयी जिंदगी झंड थी झंड ही रह गयी। मान लूंगा खुदा शक्ती तुम्हारी बन जाये जो इक बार हमारी वर्ना फर्क क्या कब्र और तुझमें अगरबत्तियां पहले भी जलती थी और अब भी जलती ही रह गयी जिंदगी झंड थी झंड ही रह गयी।
हिंसाब होकर रहेगा।
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उठी है कलम तो, हिंसाब होकर रहेगा। मिलेगी सुरक्षा वर्दी को साथ वकीलों के , न्याय होकर रहेगा। चीखता रहे जनमानस भले ही ऑक्सीजन खातिर प्रदूषण प्रकृति के साथ अब पूर्णतयः होकर रहेगा। लाल किले से दहाड़ने वाला शेर भले ही मौन हो जाये, बदली बन प्रदुषण धरा पे छा जाए अंगारें उठती रहें, भले ही वकीलों के हाहाकार से भले दिल्ली वाला मफ़लर गले मे ठिठुर कर रह जाये लेकिन उठी है कलम तो, हिसाब होकर रहेगा। 'दरिया'
याद तुम्हारी आती है।
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रिम झिम बारिस के फुहारों से आते जाते इन त्योहारों से याद तुम्हारी आती है। नुक्कड़ के नक्कारों से बजते ढोलक और नगारों से याद. तुम्हारी आती है। ओलों की मारों से सर्दी की लाचारों से याद तुम्हारी आती है। जीवन की हारों से व्यथित मन मारों से याद तुम्हारी आती है। ओठों की धारों से जिस्म की अंगारो से याद तुम्हारी आती है। समर्थन और विरोधों से विकास की अवरोधों से याद तुम्हारी आती है।