कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
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दवा को दावे के साथ और
पानी का पाचन करा सकता है
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
सुबह चुम्बन के साथ आंखें खोलकर
रात को मीठी यादों संग सुला सकता है
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
मन की भूख को चेहरे के प्रताप से
तन की , आंखों से सांत करा सकता है।
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
जिंदगी की इस बेजोड़ ठिठुरन में भी
गर्म कम्बल का अहसास करा सकता है
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
पलकों से आँशुओँ के मोती चुराकर
चेहरे पर प्यारी मुस्कान ला सकता है।
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
मेरी आदतों को अपना गहना बनाकर
अपने सांसों के तन को सजा सकता है
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
सुबह चुम्बन के साथ आंखें खोलकर
रात को मीठी यादों संग सुला सकता है
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
मन की भूख को चेहरे के प्रताप से
तन की , आंखों से सांत करा सकता है।
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
जिंदगी की इस बेजोड़ ठिठुरन में भी
गर्म कम्बल का अहसास करा सकता है
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
पलकों से आँशुओँ के मोती चुराकर
चेहरे पर प्यारी मुस्कान ला सकता है।
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
मेरी आदतों को अपना गहना बनाकर
अपने सांसों के तन को सजा सकता है
कोई इतना प्यार कैसे कर सकता है।
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किसी का टाइम पास मत बना देना।
बातों का अहसास मत बना देना मुझे किसी का खास मत बना देना बस इतना रहम करना मेरे मालिक किसी का टाइम पास मत बना देना। जान कह कर जो जान देते थे ओ चले गये अनजान बन कर फितरत किसकी क्या है क्या पता बारी आयी तो चले गये ज्ञान देकर। अब होंसला दे खुदा की निकाल सकूं खुद को भी किसी तरह संभाल सकूं आसां नहीं रूह का जिस्म से जुदा होना बगैर उसके जीने की आदत डाल सकूं। हमने ओ भयावह मंजर भी देखा है किसी को टूटते हुये अंदर से देखा है अब किसी के लिये क्या रोना धोना हमने तो अब खुद में सिकंदर देखा है।
तेरे बिन जिंदगी बसर कैसे हो।
जो अमृत है ओ ज़हर कैसे हो तेरे बिन जिंदगी बसर कैसे हो। ख़्वाबों के अपने सलीक़े अलग हैं उजालों में इनका असर कैसे हो। इंसानियत प्रकृति की गोद में हो वहां कुदरत का कहर कैसे हो। घरों की पहचान बाप के नाम से हो वह जगह कोई शहर कैसे हो। पीने के योग्य भी न रह गया हो वह जल स्रोत कोई नहर कैसे हो। खुदगर्ज़ी की बांध से जो बंध गया हो उस सागर में फिर कोई लहर कैसे हो। ढल गया हो दिन हवस की दौड़ में फिर उसमें सांझ या दो पहर कैसे हो।
उनका भी इक ख्वाब हैं।
उनका भी इक ख्वाब हैं ख्वाब कोई देखूं मैं उनसे उन्ही की तरह लच्छेदार बात फेकूं मैं। टिकाया है जिस तरह सर और के कंधे पर चाहती है सर अपना किसी और कांधे टेकूं मैं। शौक था नये नजारों का यूँ तो सदा ही देखि ओ चाहत है उसकी कि कहीं और नयन सेकूं मैं। दिल से उसे निकाल कर बचा हूँ कितना खुद में वक्त मिले गर खुदा, तो खुद को खुद से देखूं मैं। समझदारी प्यार को भी व्यापार बनाती है प्रेम मिले भी अगर शिशु की भांति देखूं मैं। बेशक़ तेरे चाहने वालों की भीड़ बहुत भारी है गर दिल से उतर गयी तो लानत है मेरे व्यक्तित्व पर जो इक बार पलट कर देखूं मैं।
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