ऐसा मंजर हो गया था।
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तुम सोंच नहीं सकते दरिया कि
ओ कितना करीब हो गया
पैंतरे ही ऐसे लगाता था ओ कि
उसका सफल तरक़ीब हो गया ।
था चार दिनों का अनुभव मात्र
चालीस दिनों को मात देता
कुछ इस कदर संभाला उसने कि
हर विभाग का नसीब हो गया ।
रख सकते हो कब तक दरिया
तुम गुमराह करके किसी को
तेरे काम का लहज़ा बता रहा था
जाने का वक्त कितना करीब हो गया
उसके प्रवेश मात्र से ही
ऐसा मंजर हो गया था
हर किसी के लिये हर कोई
चुभता खंजर हो गया था।
माना कि तुम कहना चाहते हो
किसी की चुगली नहीं कि उसने
सच्चाई ये है कि कोई बचा नहीं
जिसके पीछे उंगली नहीं कि उसने
यूं तो छा गये थे गुरु
आसमां में बादल की तरह
पर बहते देर न लगी
आंसुओं संग काज़ल की तरह।
ऐसा कुछ बचा नहीं
उसने जो किया न हो
जगह कोई बची नहीं
जलाया जहां दिया न हो।
क्या कुछ नहीं किया उसने
बस छोड़कर काम अपना
बताया है खुद को उनके संग
बस जोड़कर नाम अपना।
काम करने के तरीके और लगन ने
उसे पलकों पे बिठा दिया
पता ही नहीं चला कब
गिराने वाले ने उसे धूल चटा दिया।
ओ कितना करीब हो गया
पैंतरे ही ऐसे लगाता था ओ कि
उसका सफल तरक़ीब हो गया ।
था चार दिनों का अनुभव मात्र
चालीस दिनों को मात देता
कुछ इस कदर संभाला उसने कि
हर विभाग का नसीब हो गया ।
रख सकते हो कब तक दरिया
तुम गुमराह करके किसी को
तेरे काम का लहज़ा बता रहा था
जाने का वक्त कितना करीब हो गया
उसके प्रवेश मात्र से ही
ऐसा मंजर हो गया था
हर किसी के लिये हर कोई
चुभता खंजर हो गया था।
माना कि तुम कहना चाहते हो
किसी की चुगली नहीं कि उसने
सच्चाई ये है कि कोई बचा नहीं
जिसके पीछे उंगली नहीं कि उसने
यूं तो छा गये थे गुरु
आसमां में बादल की तरह
पर बहते देर न लगी
आंसुओं संग काज़ल की तरह।
ऐसा कुछ बचा नहीं
उसने जो किया न हो
जगह कोई बची नहीं
जलाया जहां दिया न हो।
क्या कुछ नहीं किया उसने
बस छोड़कर काम अपना
बताया है खुद को उनके संग
बस जोड़कर नाम अपना।
काम करने के तरीके और लगन ने
उसे पलकों पे बिठा दिया
पता ही नहीं चला कब
गिराने वाले ने उसे धूल चटा दिया।
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किसी का टाइम पास मत बना देना।
बातों का अहसास मत बना देना मुझे किसी का खास मत बना देना बस इतना रहम करना मेरे मालिक किसी का टाइम पास मत बना देना। जान कह कर जो जान देते थे ओ चले गये अनजान बन कर फितरत किसकी क्या है क्या पता बारी आयी तो चले गये ज्ञान देकर। अब होंसला दे खुदा की निकाल सकूं खुद को भी किसी तरह संभाल सकूं आसां नहीं रूह का जिस्म से जुदा होना बगैर उसके जीने की आदत डाल सकूं। हमने ओ भयावह मंजर भी देखा है किसी को टूटते हुये अंदर से देखा है अब किसी के लिये क्या रोना धोना हमने तो अब खुद में सिकंदर देखा है।
तेरे बिन जिंदगी बसर कैसे हो।
जो अमृत है ओ ज़हर कैसे हो तेरे बिन जिंदगी बसर कैसे हो। ख़्वाबों के अपने सलीक़े अलग हैं उजालों में इनका असर कैसे हो। इंसानियत प्रकृति की गोद में हो वहां कुदरत का कहर कैसे हो। घरों की पहचान बाप के नाम से हो वह जगह कोई शहर कैसे हो। पीने के योग्य भी न रह गया हो वह जल स्रोत कोई नहर कैसे हो। खुदगर्ज़ी की बांध से जो बंध गया हो उस सागर में फिर कोई लहर कैसे हो। ढल गया हो दिन हवस की दौड़ में फिर उसमें सांझ या दो पहर कैसे हो।
उनका भी इक ख्वाब हैं।
उनका भी इक ख्वाब हैं ख्वाब कोई देखूं मैं उनसे उन्ही की तरह लच्छेदार बात फेकूं मैं। टिकाया है जिस तरह सर और के कंधे पर चाहती है सर अपना किसी और कांधे टेकूं मैं। शौक था नये नजारों का यूँ तो सदा ही देखि ओ चाहत है उसकी कि कहीं और नयन सेकूं मैं। दिल से उसे निकाल कर बचा हूँ कितना खुद में वक्त मिले गर खुदा, तो खुद को खुद से देखूं मैं। समझदारी प्यार को भी व्यापार बनाती है प्रेम मिले भी अगर शिशु की भांति देखूं मैं। बेशक़ तेरे चाहने वालों की भीड़ बहुत भारी है गर दिल से उतर गयी तो लानत है मेरे व्यक्तित्व पर जो इक बार पलट कर देखूं मैं।

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