कोई सपना न रहा/



टूट कर बिखरा हूँ कि
कोई सपना न रहा
हो चुके सब पराये
कोई अपना न रहा।

छोड़ कर गांव
शहर क्या आ गये
किराये के जीवन में
घर का अंगना न रहा।

पर कटे परिंदे के
उसे उड़ना न रहा
नसीब बदली ऐसी कि 
हाथ का कंगना न रहा।

करें क्या सिंदूर का
जब सजना ही न रहा
धुल गये श्रृंगार कि
सजना न रहा।

हया कराहने लगी
बदन का नपना न रहा
ओढ़ ली मजबूरी की चादर
कोई रंक या रजना न रहा।

        "दरिया"

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