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Showing posts from March, 2019
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बोलते-बोलते चुप हो जाना तेरा रुला गया इस क़दर जाना तेरा ।। बुनकर बरषों रख्खा जिन रिस्तों को मुश्किल हो गया था सम्भाल पाना तेरा ।। निकलते मुख से ,सर आंखों पे ले लेना अखर गया more fast हो जाना तेरा ।। खुशी-खुशी सुनती हर बातों को तेरे समय से करती काम रोज़ाना तेरा। ।। ओ मिर्ची, पकोड़े और नमकीन कड़वा लगा, मिलाकर खा जाना तेरा ।। ज़नाज़ा निकलेगा दर्द का एक दिन होगा खुशियों से,गले लग जाना तेरा ।। महफूज़ थी तुम शर्मों हया के आंगन में बुरा हुआ, दुपटटे का सर से गिराना तेरा ।। चल रहा था सब कुछ अच्छा - अच्छा खल गया हर बात में आँसुओं का बहाना तेरा।। चढ़ती नहीं ये कच्ची शराब भी अब जब तलक पीता नहीं आंखों का मैखाना तेरा ।। कह मत देना, 'दरिया' किसी काम के नहीं याद आएगा, मुड़कर हेलो हाय कर जाना तेरा।। टूट गया था प्यार का तब्बसुम उस दिन शुरू हुआ ,उसके साथ आना जाना तेरा ।। सीख ले सबब मुहब्बत से जो कोई मुश्कुरा के गम का छुपाना तेरा ।। उड़ लो अभी उम्र है तुम्हारी भी लौटोगी, जब लद जाएगा ज़माना तेरा ।। रामानुज 'दरिया'
जहां तनाव है वहीं जिंदगी
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मेरी आबरू पर खुदा की बंदगी है जहां तनाव है वहीं जिंदगी है।। दिखता नहीं कसाव है उम्र का पड़ाव है घूरती बदन को दिमाग की गंदगी है जहां तनाव......... रिश्तों में खटाव है लगता है चुनाव है वोट के खातिर संवाद में सरमंदिगी है जहां तनाव......... रंगों का जमाव है गुझिया में भराव है ताल पे ताल सजे कैसे दिलों में दरिंदगी है । जहां तनाव.............. रामानुज 'दरिया'
होली की शुभकामनाएं।।
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कोई कहता तो कि हम हैं तुम्हारे कर देता कुर्बान जिंदगी के सितारे सीता बनकर तुम आओ तो सही जंगल जंगल भटकते राम तुम्हारे लत लगी हो जब मधुशाला की फिर मतलब क्या ब्रांड की तुम्हारे सफर किया हूँ मैं रूह तलक करुँगा क्या बदन की तुम्हारे उठाया है बोझ जिम्मेदारियों का फिक्र नहीं वज़न की तुम्हारे सुलगता रहे ज़िस्म बिरह में करूं क्या बनकर सजन तुम्हारे उड़ कर गए थे परिंदे चुगने ढ़लते साम लौट आये वतन तुम्हारे। कहना मत की इतला नहीं किया मुहब्बत करती चरित्रता का हनन तुम्हारे। बेशक गौर नहीं किया तुमने हर पल करता हूँ मनन तुम्हारे। विवस होकर भले ही रोता हूँ 'दरिया' बहती है नयन से तुम्हारे ।। रामानुज 'दरिया' होली की शुभकामनाएं।।
सारे शहर में हंगामा हो गया |
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ग़ज़ल आज़ देखने की तमन्ना क्या हुयी सारे शहर में हंगामा हो गया | गलियों से उनके गुज़रे ही थे दुश्मन-ए- सारा ज़माना हो गया | जी भर के उसे देखा जो हमने अपना दिला भी बेगाना हो गया | कुछ लम्हे थे प्यारी बातों से सारा शहर उसका दीवाना हो गया | कसमें खायी थी संग रहने की दिल मेरा ,उसका ठिकाना हो गया | मदहोश सी बोली यूं रोज़ मिला करेंगे बहाना –ए –अंदाज़ कातिलाना हो गया |
कोई जाता है क्या ||
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गरीब से रखता कोई गहरा नाता है क्या इतना करीब से कोई जाता है क्या || सिस्टम ही साजिस की देन हो तो ईमानदार बनकर कोई रह पाता है क्या || प्यार जिस्म का भरा हो जब रोम -रोम में सयंम सम्भाल कर कोई रख पाता है क्या || बहारें चली गयीं हो जब दूर तलक चमन कोई मुस्कुराता है क्या || खिल - खिलाने के दिन दो मोहब्बत के हैं बिरह में कोई हंस पाता क्या || खूबसूरत हो जिंदगी गर महबूब की तरह मौत को कोई गले लगाता है क्या || साथ रहते तो हैं उम्र भर मगर मौत के साथ कोई जाता है क्या || रामानुज 'दरिया'
मां ये मां जब भी तेरी याद आती है मेरा दिल तेरी आंचल में लिपट जाना चाहती है
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मां ये मां जब भी तेरी याद आती है मेरा दिल तेरी आंचल में लिपट जाना चाहती है धूप में आंचल की छांव दी हो सर्दियों में तन को पसारा हो बारिस की बूँदें जिसे छू न सके जतन भी किया कितना सारा हो चरणों में जिंदगी ठिकाना चाहती है | मेरा दिल ..................................... मेरी खुशियों से खुश हो जाती है कितने दुखों से मुझको संभाला है मेरी हर सांसों में बस तू रहे मां सांसें भी तुझमें समा जाना चाहती हैं | मेरा दिल ....................................... कभी लोरी सुनाती कभी थपकियां देकर सुलाती कभी आंचल में छुपाती कभी मुझमें खुद खो जाती उम्र भी गोदी में बिखर जाना चाहती है | मेरा दिल ...................................... रामानुज ‘दरिया’
ग़ज़ल गम
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लिपटकर रात भर मेरे साथ सोता है जाने क्यूं मेरे साथ ही ऐसा होता है | उतार देता हूँ बदन से हर कपड़े अपने पता चलता है ओ रूह में उतरा होता है | जी चाहता है निकल फेंकू ये रूह भी अपनी ध्यान गया तो देखा रोम –रोम में बसा होता है | मेरा गम से इतना गहरा नाता है आँख खुलती है तो कोहरा सा होता है | रामानुज ‘दरिया’
कमजोरियों का करता शिकार था ओ ||
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गज़ल कमजोरियों का करता शिकार था ओ सुना है कि बहुत समझदार था ओ बिखेर देता फूल कदमों तले पहले फिर करता काँटों से वार था ओ निश्छल ,निर्मल पावन था ओ सुना है बड़ा मन भावन था ओ ये सपनों के शब्द हैं साहब दिल से तो बड़ा मक्कार था ओ शिकार को पहले शिकंजे में लेता मौका पाते ही दबा पंजों में लेता दिमाग का करता बलात्कार था ओ सच में बड़ा मक्कार था ओ रामानुज “दरिया”
रूठ के यूं न जा, ये जिंदगी मेरी ||
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ग़ज़ल रूठ के यूं न जा, ये जिंदगी मेरी जख्म बन जाएगी बस ये यादें तेरी | तड़पना मेरी बस मुक्कदर में है , वरना बाँहों में होती मोहब्बत मेरी | रूठ के यूं ............................. चाह के भी न होती कम ये चाहत मेरी, न गुजरती है बिन तेरे ये रातें मेरी| रूठ के यूं ................................. मैखानों की दुनिया से क्या वास्ता, तेरे नैनों से बुझती है प्यासें मेरी | रूठ के यूं ............................... रामानुज “दरिया”